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स्व. मोहन उप्रेती
स्व. मोहन उप्रेती, फ़ाइल फ़ोटो

सुप्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती की पुण्यतिथि पर विशेष, जब पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने मोहन उप्रेती को कहा ‘बेडू पाको ब्वाय’

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है!

उस शाम मैं गुजर रहा था उद्दा की दुकान के सामने से, अचानक दुकान की सबेली में खड़े मोहन ने आवाज दी- ‘कहां जा रहा है ब्रजेन्द्र? यहां तो आ।’ क्या है यार? घूमने भी नहीं देगा।’ और मैं खीज कर उदेसिंह की दुकान के सामने उसके साथ घुस गया। उसके सामने ही लगी हुई लकड़ी की खुरदरी मेज थी। मोहन कुछ उत्तेजित-सा लग रहा था। मेज को तबला मानकर वह उसमें खटका लगाकर एक पूर्व प्रचलित कुमाउनी गीत को नितान्त नई धुन तथा द्रुत लय में गा रहा था। वह बार-बार एक ही बोल को दुहरा रहा था। उस गीत की नई और चंचल धुन मुझे भी बहुत अच्छी लग रही थी। गीत था-

बेडू पाको बारामासा
हो नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला।
रूणा-भूणा दिन आयो
हो नरैण पूजा म्यारा मैता मेरी छैला।

 

मोहन बार-बार यही धुन दुहरा रहा था। ‘अरे भाई… आगे तो गा।’ मैं बेसब्र होकर बोला। ‘यार ब्रजेश आगे तो मुझे भी नहीं आता। किसी के मुंह से सुना था। तर्ज भूल गया इसलिये नई धुन बनाकर गा रहा हूं। इसके आगे कुछ लिख।’ पास ही लकड़ी की फर्श पर ‘सीजर’ सिगरेट का खाली डिब्बा पड़ा था। मैंने उठाया जोड़ उखाड़ कर खोला… उदेसिंह से पेंसिल लेकर उस बोल को आगे बढ़ाने का प्रयास प्रारंभ कर दिया।’

ब्रजेन्द्र लाल शाह ने अपने संस्मरण में ‘अब केवल बिंबो में’ मोहन उप्रेती को याद करते हुये उपरोक्त पंक्तियां लिखी हैं। फिर जो गीत बना वह है-

रौ की रौतेली लै माछी मारी गीड़ा
तेरो खुटो काना बुड़ो मेरो खुटा पीड़ा
हो नरैण मेरो खुटा पीड़ा

सवाई को बाल मेरो हिया भी औंछ जस नैनीताल
बाकरी की पसी पारा डाना दिखा हैंछै ब्याण तारा जसी
हो नरैण ब्याण तारा जसी मेरी छैला

लडि़ मरी के होलो लड़ाई छौ धोखा
हो नरैण लड़ाई छौ धोखा मेरी छैला
हरियो भरियो रई चैंछ हो नरैण धरती को कोखा
हो नरैण धरती की कोखा मेरी छैला।

 

बाद में यह गीत उदेसिंह की दुकान से लेकर सात संमदर पार तक पहुंच गया। हर व्यक्ति उन्हें तभी से जानता है जब से वह ‘बेडू पाको बारामासा…’ गीत सुनता है। दुनिया के जिस भी कोने में यह गीत बजता है एक पहाड़ सामने खड़ा हो जाता है। सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक सरोकार, राजनीतिक समझ, जीवन के संघर्ष, आमजन की पीड़ा, व्यवस्था के खिलाफ प्रतिकार, सामाजिक विकृतियों से टकराने की जिजीविषा, बेहतर समाज बनाने की आंकाक्षा इन सबसे बने व्यक्ति को हम मोहन उप्रेती के नाम से जानते हैं। एक तरह से वे हमेशा हमारी सांस्कृतिक यात्रा के ब्रांड एम्बेसडर बने रहेंगे। हम उन्हें कई रूपों में जानते हैं। उनका हर रूप समाज के अंदर उठने वाली हर बेचैनी को स्वर देने वाला है। आज उनकी पुण्यतिथि है। हम सब उन्हें कृज्ञतापूर्वक याद करते हैं।

सुप्रसिद्ध साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘मोहन गाता जायेगा’ का शीर्षक उन पर लिखे संस्मरण पर ही रखा। नौटियाल जी ने उन्हें याद करते हुये लिखा है कि- ‘एक ओर राज्य सरकार और जिला प्रशासन हमें तन्हाई देकर और हमारे परिजनों को तंग, परेशान कर हमें ठीक करने पर उतारू थे। जिसके दिमाग में ‘साम्यवाद आवश्यंभावी है’ का महामंत्र गूंजता रहता था, दूसरी ओर जेल के अंदर मोहन की मौजूदगी के कारण हमारी जिन्दगी पूरी तरह बदलने लगी थी। चौथे वार्ड की पहली बैरक। इसमें चौरासी कैदियों को रखा जा सकता है। हम कुल सात लोग बंद थे। अभी रात खुली नहीं है। जेल में कैदियों की बैरकों को खोले जाने के लिये लगातार बजाये जाने वाला घंटा, जिसे पचासा कहते हैं, के बजाये जाने में अभी पर्याप्त विलंब है। तालों से जकड़ी बैरक के अंदर अपने सख्त बिस्तर पर बैठकर मोहन उप्रेती भैरवी गाने लगा है। शांत जेल की अन्य बैरकों में भी मोहन की आवाज गूंजने लगी है। मिठास से भरी हुई एक महान संगीतकार की आवाज-

भैरवी कहे मनमानी
कोमल सब सुर कर गुनि गावत
प्रथम पहर की रानी हो।

 

…जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में बुल्गानिन-खु्रश्चोव भारत आये थे। कलकत्ते में उनके स्वागत में जो जन सैलाब उमड़ा था, उसके बारे में पंडित नेहरू ने कहा था- ‘आज मानव इतिहास में सबसे बड़ा जन समूह यहां इकत्र हुआ है। बुल्गानिन-खु्रश्चोव के स्वागत में दिल्ली में किये गये आयोजन में उप्रेती ने कलाकारों की अपनी टोली के साथ एक गीत प्रस्तुत किया था। गीत के बोल थे- ‘बेडू पाको बारामासा, नरैण काफल पाको चैता मेरी छैला।’ लोक गीत संगीत की धुन पर बनाया गया मोहन-नईमा का यह गीत आज उत्तराखंड के घर-घर का गीत बन गया है।

… देहरादून में मेरे घर के बाहर एक बारात चली जा रही है। नौजवान मस्ती में नाच रहे हैं। गीत की धुन मादक है। ‘बेडू पाको बारामासा’ गाया जा रहा है। गीत के बोल वाद्ययंत्र और नृत्य करने वालों की पगध्वनि से उठने वाला सामूहिक नाद जमीन-आसमान को एक करने लगा लगा है।

कौन कहता है मोहन उप्रेती मर गया है?
मोहन जिन्दा है। मेरे घर के बाहर सड़क पर गीत गाता जा रहा है। लोग झूम रहे हैं और वह गाता जा रहा है। मोहन उप्रेती अमर है दिल्ली में बैठा शासन तंत्र भूले तो भूले। उत्तराखंड मेें लाखों कंठों से उसके गीतों की स्वरधारा लगातार प्रवाहित होती रहेगी। व शताब्दियों तक जीवित रहेगा।’ (मोहन गाता जायेगा, विद्यासागर नौटियाल)

 

मोहन उप्रेती का जन्म 17 फरवरी, 1928 में रानीधारा, अल्मोड़ा में हुआ था। उप्रेती सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और लोक संगीत के मर्मज्ञ थे। कुमांउनी संस्कृति, लोकगाथों को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने में इनकी अहम भूमिका रही। वर्ष 1949 में एमए करने के बाद 1952 तक अल्मोड़ा इण्टर कालेज में इतिहास के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। 1951 में ‘लोक कलाकार संघ’ की स्थापना की। 1950 से 1962 तक कम्युनिस्ट पार्टी के लिये भी कार्य किया। इस बीच पर्वतीय संस्कृति का अध्ययन और सर्वेक्षण का कार्य किया। सुप्रसिद्ध लोक कलाकार मोहन सिंह बोरा ‘रीठागाड़ी’ के सम्पर्क में आये। इसके बाद वे लगातार सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे। कुमाऊं और गढ़वाल में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम किये। वामपंथी विचारधाराओं के कारण 1962 में चीन युद्ध के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और नौ महीने का कारावास भी झेला।

जेल से छूटने के बाद अल्मोड़ा और सारे पर्वतीय क्षेत्र से निष्कासित होने के कारण इन्हें दिल्ली में रहना पड़ा। दिल्ली के ‘भारतीय कला केन्द्र’ में कार्यक्रम अधिकारी के पद पर इनकी तैनाती हुई और 1971 तक इस पद पर रहे। दिल्ली में पर्वतीय क्षेत्र के लोक कलाकारों के सहयोग से 1968 में ‘पर्वतीय कला केन्द्र’ की स्थापना की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली में 1992 तक प्रवक्ता और एसोसियेट प्रोफेसर भी रहे। विश्व स्तर पर गढ़्वाल और कुमाऊं की लोक कला की पहचान कराने में मोहन उप्रेती का विशिष्ट योगदान रहा है। अपने रंगमंचीय जीवन में इन्होंने लगभग बाइस देशों की यात्रा की और वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। अल्जीरिया, सीरिया, जार्डन, रोम आदि देशों की यात्राएं की और वहां पर सांस्कृतिक कलाकारों के साथ पर्वतीय लोक संस्कृति को प्रचारित किया। पर्वतीय लोक कलाकारों के साथ 1988 में चीन, थाईलैण्ड और उत्तरी कोरिया का भ्रमण किया। ‘श्रीराम कला केन्द्र’ के कलाकारों के साथ लगभग बीस देशों का भ्रमण किया। सिक्किम के राजा नाम्ग्याल ने इन्हें राज्य में सांस्कृतिक कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने के लिये विशेष रुप से आमंत्रित किया।

 

अल्मोड़ा में अपने अनन्य सहयोगियों ब्रजेन्द्र लाल शाह, बांके लाल शाह, सुरेन्द्र मेहता, तारा दत्त सती, लेनिन पन्त और गोवर्धन तिवाड़ी के साथ मिलकर ‘लोक कलाकार संघ’ की स्थापना की। अपने रंगमंचीय जीवन में मोहन उप्रेती ने पर्वतीय क्षेत्रों के लगभग डेढ़ हजार कलाकारों को प्रशिक्षित किया और 1200 के करीब सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये।

राजुला-मालूशाही, रसिक-रमौल, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, अजुवा-बफौल जैसी तेरह लोक कथाओं और विश्व की सबसे बड़ी गायी जाने वाली गाथा ‘रामलीला’ का पहाड़ी बोलियों (कुमाउनी और गढ़वाली) में अनुवाद कर मंच निर्देशन कर प्रस्तुत किया। इसके अतिरिक्त हिन्दी और संस्कृत में मेघदूत और इन्द्रसभा, गोरी-धन्ना का हिन्दी में मंचीय निर्देशन किया।

मोहन उप्रेती भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग की लोक नृत्य समिति के विशेषज्ञ सदस्य रहे, हिमालय की सांस्कृतिक धरोहर के एक्सपर्ट सदस्य और भारतीय सांस्कृतिक परिषद के भी विशिष्ट सदस्य रहे। देश की प्रमुख नाट्य मंडलियों से इनका सीधा संपर्क रहा, कई नाटकों के संगीतकार रहे, इनमें प्रमुख हैं- घासीराम कोतवाल, अली बाबा, उत्तर रामचरित्त, मशरिकी हूर और अमीर खुसरो।

लोक संस्कृति को मंचीय माध्यम से अभिनव रूप में प्रस्तुत करने, संगीत निर्देशन और रंगमंच के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये इन्हें साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा 1962 में पुरस्कृत किया गया। संगीत निर्देशन पर उन्हें 1981 में भारतीय नाट्य संघ ने पुरस्कृत किया। लोक नृत्यों के लिये संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1985 में पुरस्कृत हुये। हिन्दी संस्थान उप्र सरकार नें उन्हें सुमित्रानन्दन पन्त पुरस्कार देकर सम्मानित किया। वे जोर्डन में आयोजित समारोह में प्रसिद्ध गोल्डन बियर पुरस्कार से भी पुरस्कृत हुये। इण्डियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन (इप्टा) के भी सदय रहे। सलिल चौधरी, उमर शेख और बलराज साहनी के साथ मिलकर कई कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये।

उत्तराखण्डी लोक संस्कृति के चितेरे का 6 जून, 1997 को निधन हो गया। उनका गाया और संगीतबद्ध किया गया लोकगीत ‘बेडू पाको बारा मासा’ हमेशा उनकी याद दिलाता रहेगा। जब जवाहर लाल नेहरु ने उनके कंठ से यह गीत सुना तो उन्होंने मोहन उप्रेती का नाम ‘बेडू पाको ब्वाय’ रख दिया। हम उन्हें कृतज्ञतापूर्वक याद करते हैं।

 

(साभार- चारु तिवारी, स्वतंत्र पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता)

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