अल्मोड़ा: वन पंचायत संगठन के नेतृत्व में विभिन्न सामाजिक संगठनों ने जिलाधिकारी के माध्यम से मुख्यमंत्री को ज्ञापन भेज वन पंचायतों के सशक्तीकरण(Empowerment of Van Panchayats) हेतु आवश्यक कदम उठाये जाने की मांग की। ज्ञापन में कहा है कि उत्तराखण्ड में स्थित वन पंचायतें लोक आधारित वन प्रबंधन की सस्ती, लोकप्रिय व अनूठी व्यवस्था है, जिसे हमारे बुजुर्गों ने ब्रिटिश हुकूमत के साथ लंबे संघर्ष के बाद हासिल किया था। शासन, प्रशासन की उपेक्षा के चलते आज वन पंचायतें भारी संकट के दौर से गुजर रही हैं।
अपने 13 बिन्दुओं के ज्ञापन में वन पंचायत नियमावली को वन अधिनियम से बाहर कर इसके लिए पृथक अधिनियम बनाने, वन पंचायतों को वन विभाग के अनावश्यक हस्तक्षेप से मुक्त करने, सरपंचों को मानदेय देने व वन पंचायत सदस्यों का बीमा कराये जाने, वन पंचायत के चुनाव समूचे प्रदेश में एक साथ गुप्त मतदान द्वारा कराये जाने, लीसा रायल्टी का भुगतान वन पंचायतों को तत्काल करने, माइक्रो प्लान की जटिलताओं को समाप्त करने, वन पंचायतों में किये गये अतिक्रमण को एक अभियान चलाकर हटाने, वन पंचायतों को जैव विविधता प्रबंधन समिति की मान्यता देने तथा राज्य में वनाधिकार कानून को प्रभावी तरीके से लागू करने की मांग की गयी है।
ज्ञापन में कहा कि वन पंचायत की 1931 में बनी पहली नियमावली शैडयूल्ड डिस्टिक्ट एक्ट के तहत बनाई गयी थी, लेकिन वर्तमान नियमावली वन अधिनियम 1927 की धारा 28 के तहत बनाये जाने के बाद अब वे वैधानिक रूप से वन पंचायत नहीं रही। पंचायती वनों की स्थिति ग्राम वन हो गयी है, जबकि वन पंचायतें ग्राम वन नहीं हैं।
ज्ञापन में कहा कि उत्तराखण्ड राज्य गठन के बाद वन पंचायत नियमावली में 3 बार संशोधन किया जा चुका है। एक बार पुन: संशोधन का ड्राफ्ट वन विभाग के पटल पर पड़ा है, नियमावली में संशोधन से पूर्व वन पंचायत प्रतिनिधियों एवं वन मुद्दों से जुड़े लोगों को विश्वास में लेने की मांग की गयी।
ज्ञापन में वन पंचायत संगठन के संरक्षक ईश्वर जोशी, सरपंच संगठन ताकुला के अध्यक्ष डूंगर सिंह, सरपंच महेन्द्र सिंह बिष्ट, पी.सी तिवारी, पूरन सिंह नयाल, हर सिंह बिष्ट, वन पंचायत संघर्ष मोर्चा के तरूण जोशी, ग्राम प्रधान भुवन आर्या, संसाधन पंचायत के दिनेश कुमार, ललित उप्रेती, सरस्वती देवी, कौशल्या, एडवोकेट गोपाल राम सहित कई सरपंचों के हस्ताक्षर हैं।
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