बहुत वर्ष पहले एक विज्ञापन आया था, नैनो कार का था- टाटा का सपना, हर मुट्ठी में एक चाभी (कार की)। विज्ञापन निसंदेह लुभावना था, लोभ शब्द से बना है लुभावना। हम यह भी चाहते हैं कि हरेक के पास अपनी कार हो और हम पर्यावरण खराब होने, बढ़ते प्रदूषण पर चिंता भी करते हैं। अब कार होगी तो प्रदूषण भी होगा ही।
हमें बिजली चाहिए, बिजली न हो तो हम आन्दोलन करते हैं, क्योंकि हमें लगता है बिना बिजली के हम पिछड़े हुए हैं, हमें सड़क भी चाहिए, सड़क न हो तो भी आन्दोलन हो जाता है कि इसके बिना विकास कैसे आएगा। और हम बड़े बांधों का विरोध करते हैं कि इनसे पर्यावरण खतरे में है, हम ताप बिजलीघर, एटोमिक बिजलीघर का भी विरोध करते हैं कि इससे खतरा है। हम मकान बनाते समय बढ़िया पत्थर–सीमेंट भी लगाते हैं, और खनन से होने वाले प्रदूषण के खिलाफ आन्दोलन भी करते हैं। हमें नित नए उद्योग भी चाहिए, उद्योग लगेंगे तो रोजगार मिलेगा, विकास होगा। किन्तु उद्योगों के कचरे से नदियाँ-हवा प्रदूषित होती है तो हम आन्दोलन भी करते हैं।
यह सब इसलिए हो रहा है कि हम तय नहीं कर पाए कि हमें कितनी बिजली चाहिए, कितनी सड़कें चाहिए, कितना विकास चाहिए। जीना है तो प्रकृति से कुछ न कुछ तो लेना ही होगा, पर यह कितना लेना है यह तय करना जरूरी है।
सिर्फ सीमाएं ही तय नहीं करनी है, बल्कि यह भी तय करना होगा कि विकास का अर्थ क्या है? गाँव में वार्ड मेम्बर/प्रधान पद के प्रत्याशी कहते हैं कि अगर मुझे जिताया तो मैं विकास करूंगा, उसका विकास कस्बों/शहरों की नक़ल है। कस्बों/शहरों में प्रत्याशी कहते हैं कि अगर हम आये तो विकास करेंगे… उनका विकास महानगरों की नक़ल का है। पिथौरागढ़-उत्तरकाशी का विधायक सांसद भी विकास करने की बात करता है, तो देहरादून-हल्द्वानी का विधायक सांसद भी। विकास का पर्याय माने जाने वाले शहरों-दिल्ली, मुंबई, बंगलौर, अहमदाबाद का विधायक सासंद भी यह कहता है कि मैं जीता तो विकास करूंगा। तो यह विकास कैसा है, यह भी तय करना होगा।
हमें तय करना होगा कि हमें प्रकृति के साथ साहचर्य की भावना वाले भारतीय दर्शन वाला विकास चाहिए या प्रकृति को गुलाम-दास समझने वाले पश्चिमी दर्शन वाला विकास? जोशीमठ को इसी निरंकुश विकास ने मारा है, जिसकी सीमाएं तय नहीं हैं। प्रकृति सह विकास और निरंकुश विकास के फर्क को समझना ही होगा।
पर यह बातें उनकी समझ में बिलकुल ही नहीं आएंगी जो भारत को कभी पेरिस-टोकियो-न्यूयार्क, तो कभी स्विट्ज़रलैंड-बीजिंग-लन्दन बनाना चाहते हैं, और उसी को विकास मानते हैं। ये देश अगर पेरिस-टोकियो-न्यूयार्क, स्विट्ज़रलैंड-बीजिंग–लन्दन आदि बन भी गया तो भारत कहां बचेगा? भारत के विकास को तो भारत के संदर्भों में ही समझना होगा। भारतीय मिथकों में ऐसी कई कथाएं हैं जिनमें जिसे भी अमरता–निरंकुशता का वरदान मिला है वह राक्षस बन गया है। लंका भी सोने की ही थी… पूरा शहर ही सोने का हो जाय, इससे बड़ा विकास और क्या सकता था?
हमें क्या चाहिए यह तय करना जरूरी तो है, पर इससे भी ज्यादा जरूरी है कि हमें कितना चाहिए?
हमें तय करना होगा कि हमें प्रकृति के साथ साहचर्य की भावना वाले भारतीय दर्शन वाला विकास चाहिए या प्रकृति को गुलाम-दास समझने वाले पश्चिमी दर्शन वाला विकास? और तय करने से पहले भौगोलिक स्वभाव को भी समझने की जरूरत है, हिमालय का अपना एक मिजाज है, देश दुनिया की अन्य भौगोलिक-प्राकृतिक इकाइयों से सर्वथा परे… इस मिजाज के प्रतिकूल विकास होगा तो हिमालय नाराज होगा ही।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक के बारे में-
(लेखक मुकेश प्रसाद बहुगुणा राजकीय इंटर कॉलेज मुंडनेश्वर, पौड़ी गढ़वाल में राजनीति विज्ञान के शिक्षक है और वायु सेना से रिटायर्ड है। मुकेश प्रसाद बहुगुणा समसामयिक विषयों पर सोशल मीडिया में व्यंग व टिप्पणियां लिखते रहते है।)
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