जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात॥
(जिस प्रकार केले के तने को छीला जाए तो पत्ते के नीचे पत्ता फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में कुछ नहीं निकलता है। लेकिन पूरा पेड़ खत्म हो जाता है। ठीक उस तरह इंसान को जातियों में बांट दिया गया है … जब तक जाति खत्म नहीं होगी, तब तक इंसान एक दूसरे से जुड़ नहीं सकता।)
आज देख रहा हूँ कि हर बड़ा नेता संत रैदास याद कर स्वांग रचा रहा है… चुनाव सर पर जो हैं…यकीनन इनके पीआरओ ने इन्हे याद दिलाया होगा कि संत रैदास भी तो एक खाता है… वोट बैंक में…
ईमानदारी से देखा जाय तो संत रैदास सहित अनेकों संत हो गए हैं जिन्हे वो सम्मान-सामाजिक स्वीकार्यता कभी मिली ही नहीं, जो सवर्ण जातियों में जन्म लेने वाले अन्य संतों को मिली…. आज भी सवर्ण बहुल बस्तियों में संत रैदास की प्रतिमा /मंदिर अपवाद स्वरूप ही दिख सकेंगे।
इतिहास को देखें तो पाएंगे कि संत रैदास की शिक्षा को सिर्फ सिक्ख धर्म में स्थान मिला है… गुरु ग्रंथ साहिब में जिन 36 गुरुओं/संतों की वाणी शामिल है, उनमें संत रैदास की वाणी भी है।
सिक्ख गुरुओं की यह महानता है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती और समवर्ती संतों का पंथ /मजहब/जाति न देखी, बल्कि उनकी शिक्षा-विचार -कर्म देखे। गुरु ग्रंथ साहिब में 36 संतों की शिक्षा को संकलित किया गया था। सिक्ख गुरुओं के साथ इसमें रैदास, कबीर, नामदेव, सूरदास, पीपा जी, फरीद , भीखन जी आदि की वाणी है… आनंद की बात यह है कि इनमें से बहुत से संत सिक्ख धर्म/परंपरा के अनुयायी नहीं थे… फरीद जी तो पांच वक्त के नमाजी थे।
संत रैदास को नमन… आपने कहा था- मन चंगा तो कठौती में गंगा…
साभार
मुकेश प्रसाद बहुगुणा
लेखक के बारे में-
(लेखक राजकीय इंटर कॉलेज मुंडनेश्वर, पौड़ी गढ़वाल में राजनीति विज्ञान के शिक्षक है और वायु सेना से रिटायर्ड है। मुकेश प्रसाद बहुगुणा समसामयिक विषयों पर सोशल मीडिया में व्यंग व टिप्पणियां लिखते रहते है।)