असहमति के साथ चलने वाला साथी
अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट विकासखंड में एक छोटी सी जगह है बग्वालीपोखर। वहीं इंटर कालेज में हम लोग पढ़ते थे। कक्षा नौ में। यह 1979 की बात है। पिताजी यहीं प्रधानाचार्य थे। उन्होंने बताया कि पोखर में विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डाॅ. डीडी पंत आने वाले हैं। पिताजी कई बार उनके बारे में बताते थे। जब वे डीएसबी कालेज, नैनीताल में पढ़ते थे तब पंतजी शायद वहां प्रवक्ता बन गये थे। हम गांवों के रहने वाले बच्चे। हमारे लिये वैज्ञानिक जैसे शब्दों का मतलब ही किसी दूसरे लोक की कल्पना थी। बड़ी उत्सुकता हुवी उन्हें देखने की। बग्वालीपोखर उस समय बहुत छोटी जगह थी। बस कुछ दुकानें। एक रामलीला का मैदान। पुराने पोखर में। उसके सामने एक धर्मशाला। उसके बगल में जशोदसिंह जी की दुकान। वहीं पर एक चबूतरा। इसकी पहचान ‘बीतंड’ के पेड़ से थी। यही पर सभा होने वाली थी। हम समय से पहले ही पहुंच गये। डाॅ. डीडी पंत, जसवंत सिंह बिष्ट और बिपिन त्रिपाठी को इस सभा को संबोधित करना था। यह सभा किसने आयोजित की पता नहीं। क्योंकि बग्वालीपोखर जैसे क्षेत्र में उस समय उत्तराखंड राज्य जैसे मुद्दे पर बात करना बहुत आश्चर्यजनक था। अब सोचता हूं कि हरिशरण शर्मा जी ने की होगी क्योंकि वे ही 1972 से बिपिन त्रिपाठी के साथ थे। अभी उत्तराखंड क्रान्ति दल की स्थापना ही हुवी थी। डीडी पंत उसके संस्थापक अध्यक्ष थे। वे पार्टी के विस्तार के लिये शायद यहां आये थे। पृथक राज्य की बात तो शायद उस समय ज्यादा समझ में नहीं आयी होगी, लेकिन लगा कि ये लोग ठीक बात कर रहे हैं।
यही बिपिन त्रिपाठी को पहली बार सुनने का मौका मिला। धाराप्रवाह, तथ्यों, आंकड़ों और ओज से भरे उनके संबोधन ने ऐसा खींचा कि बाद के दिनों में दो दशक तक साथ रहने का मौका मिला। जीवन मूल्यों के लिये प्रतिबद्ध और सामाजिक-राजनीतिक चेतना से परिपूर्ण एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने कभी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। सुचिता, समर्पण, ईमानदारी और प्रतिबद्धता का एक मिथक। जो ताउम्र बेहतर समाज के लिये लड़ता-भिड़ता रहा। कभी व्यवस्था से तो कभी सामाजिक विसंगतियों से। ऐसा व्यक्ति जिसके साथ तमाम असहमतियों के बीच भी चला जा सकता था। लड़ा जा सकता था। लड़ना तो उनके जीवन का हिस्सा था। शायद नैसर्गिक। यही जिजीविषा ने बिपिन दा को गढ़ा। मजबूत किया। विचार और व्यवहार के बीच कोई पतली सी रेखा तक नहीं। बिल्कुल पारदर्शी। जिसमें सबकुछ साफ-साफ देखा जा सकता था।
सत्तर का दशक। उत्तराखंड में युवा चेतना का समय। नर्इ तरह की सामाजिक चेतना और उसे राजनीतिक रूप में बदलने की छटपटाहट। देशभर में गुजरात और बिहार से छात्रों की हुंकार उठ रही थी। अभी नक्सलबाड़ी की आवाजें थमी नहीं थी। तेलंगाना के आंदोलन के स्वर धीमे नहीं पड़े थे। पहाड़ का युवा इन तमाम आंदोलनों प्रभावित था। यहां भी जल, जंगल और जमीन के सवाल उसी तरह मुखर हो रहे थे जैसे देश के अन्य हिस्सों में। इसकी पृष्ठभूमि हालांकि पहले बननी शुरू हो गयी थी, लेकिन इसमें पैनापन 1972 के बाद आना शुरू हुआ। इस दौर में छात्र-युवाओं की जो राजनीतिक धारा तैयार हुवी उसने प्रतिकार का एक बड़ा मंच खड़ा कर दिया। उसमें ज्यादातर लोग प्रगतिशील विचारधारा के थे। उस दौर में कुमाऊं में समाजवादी और गढ़वाल में कम्युनिस्ट इस पूरी छटपटाहट को दिशा देने का काम कर रहे थे। बाद में वन आंदोलन, विश्वविद्यालय आंदोलन, तराई में जमीनों के सवाल, आपातकाल, नशा नहीं, रोजगार दो, राज्य आंदोलन के अलावा स्थानीय स्तर पर जितने भी आंदोलन हुये उनका नेतृत्व इन्हीं लोगों ने संभाला। यही धारा आज भी प्रतिकार की अगुआई करती है।
बिपिन चन्द्र त्रिपाठी इसी युवा चेतना के प्रतिनिधि थे। अल्मोड़ा जनपद के विजेपुर (दैरी) में 23 फरवरी 1945 को विपिन दा का जन्म हुआ। उनके पिताजी मथुरादत्त मुक्तेश्वर में डाक विभाग में काम करते थे। बहुत कम उम्र में ही वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गये थे। वे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सभी तरह की गतिविधियों में दिलचस्पी लेते। मुक्तेश्वर से ही प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद उन्होंने हल्द्वानी से आईटीआई किया। कभी बाद में स्नातक भी किया। यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं था। उनकी असली शिक्षा तो सामाजिक संघर्षों के बीच हुर्इ। राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में जब पूरे देश में गैर कांग्रेसवाद का नारा एक शक्ल ले रहा था तब उत्तराखंड में भी इसकी गूंज सुनाई देने लगी थी। समाजवाद का आधार तो यहां था ही। बिपिन त्रिपाठी को समाजवाद के उस दौर ने बहुत प्रभावित किया था जब उनके ही क्षेत्र कफड़ा में 1939 में समाजवादियों का एक बड़ा सम्मेलन हुआ था। जिसे ‘विमलानगर सम्मेलन’ के नाम से जाना गया। इस सम्मेलन में देश के सभी बडे समाजवादी नेता शामिल हुये। इस सम्मेलन के बाद बहुत से युवा समाजवादी धारा की ओर उन्मुख हुये। प्रखर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मदनमोहन उपाध्याय यहीं के थे इसलिये विपिन त्रिपाठी उनके व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सबसे बड़ी बात यह कि नेहरू परिवार के साथ पारिवारिक रिश्ते होने के बावजूद वे समाजवादी पार्टी में रहे। रानीखेत से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से पहली विधानसभा के विधायक और सदन के उपनेता रहे। इसी दौर में नारायणदत्त तिवारी, जगन्नाथ मिश्रा, रामशरण जोशी, प्रताप भय्या, गोबिन्दसिंह मेहरा जैसे लोग प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को मजबूत कर रहे थे। देश के बड़े समाजवादी नेता इस क्षेत्र में आते रहते थे। युवा बिपिन त्रिपाठी पर इन लोगों का गहरा प्रभाव पड़ा। आचार्य नरेन्द्र देव, आचार्य कृपलानी और राममनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने समाजवादी आंदोलन में शिरकत करना शुरू कर दिया।
साठ के तराई भूमिहीनों का आंदोलन शुरू हुआ। 1967 में इस आंदोलन का नेतृत्व प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया कर रहे थे। इस आंदोलन में राजनारायण शामिल रहे। बिपिन त्रिपाठी उन दिनों हल्द्वानी में थे। उन्होंने समाजवादी युवजन सभा से जुड़कर संगठन के लिये काम करना शुरू किया। वे तराई के भूमिहीनों के आंदोलन में शामिल हो गये। उन्हीं दिनों पार्टी के कार्यकर्ता अपना एक पत्र निकालते थे ‘युवजन मशाल’। इसके संपादक रईस आलम और सह संपादक बिपिन त्रिपाठी थे। बाद में विपिन दा इसके संपादक रहे। यहां से उनका राजनीतिक जीवन शुरू हुआ। उन्हें युवजन सभा का प्रदेश संगठन मंत्री बनाया गया।
नैनीताल में 1971 में युवजन सभा का प्रांतीय सम्मेलन हुआ। इसकी पूरी जिम्मेदारी बिपिन दा ने निभाई। इस सम्मेलन के बाद बिपिन त्रिपाठी अपने गांव द्वाराहाट चले गये। यहां रहकर उन्होंने अपने क्षेत्र की समस्याओं के लिये काम करना शुरू किया। उन्होंने द्वाराहाट जैसी छोटी जगह से ‘द्रोणांचल प्रहरी’ के नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र की शुरुआत की। अपने अखबार के माध्यम से वे जनता के सवालों को बहुत प्रमुखता से उठाने लगे। यह अखबार सत्ता और प्रशासन पर तीखे प्रहार करता था। एक पत्रकार के रूप में बिपिन दा ने इस अखबार से नई पहचान बनाई। जब देश में इंदिरा का ‘गरीबी हटाओ’ का नारा आया तो विपक्ष ने उसके खिलाफ ‘इंदिरा हटाओ’ का नारा दिया। गुजरात में चिमनभाई पटेल के खिलाफ छात्र सड़कों पर आ गये थे। बिहार में भी छात्र आंदोलित थे। ऐसे समय में बिपिन त्रिपाठी ने भी मोर्चा संभाला। वे भी सरकार के खिलाफ आग उगलने लगे। उन्होंने द्वाराहाट में जार्ज फर्नाडीज, मघु लिमये और मधु दंडवते को बुलाया। इस सभा में मधु लिमये ही आ पाये थे। उन्होंने यहां एक बड़ी जनसभा को संबोधित किया था।
उसी समय युवा और छात्रों ने एक संगठन ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ बना लिया था। इसमें डाॅ. शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, राजीवलोचन साह, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ आदि शामिल थे। यह संगठन सामाजिक चेतना से भरपूर तो था ही राजनीतिक रूप से भी परिपक्व था। बिपिन दा भी इस संगठन के प्रमुख सदस्य थे। मोर्चे ने अपने पर्चो, धरना-प्रदर्शन, लेखों, नुक्कड़ नाटकों आदि से सामाजिक-राजनीतिक चेतना का काम किया। इसी समय पहाड़ में वनों के दोहन का सिलसिला शुरू हुआ। सरकार ने तीस साला एग्रीमेंट पर जंगलों को बड़े ईजारेदारो का सौंपने का आदेश दे दिया। जंगलों की नीलामी होने लगी। जहां एक तरफ छात्र-युवाओं में इसमें आक्रोश था वही ‘कुमाऊं वन बचाओ संघर्ष समिति’ बहुत ताकत के साथ इसका प्रतिकार कर रही थी। बिपिन दा का अखबार ‘द्रोणांचल प्रहरी’ वन आंदोलन का मुखपत्र बन गया था। यह वह दौर था जब वन आंदोलन धीरे-धीरे ‘चिपको’ में बदल रहा था। बिपिन त्रिपाठी ने द्वाराहाट के ‘चांचरीधार’ के जंगल में डेरा डाला। उन्होंने चांचरीधार को बचाने के लिये जो संघर्ष किया वह वन आंदोलन के लिये बड़ी ताकत बना। उस समय पहाड़े में वनों को लेकर जो आंदोलन चल रहे थे चांचरीधार उनका प्रतिनिधि बन गया।
उस समय की चर्चित पत्रिकाओं ‘दिनमान’ और ‘रविवार’ में जंगलों की लूट के खिलाफ उनके लेखों ने वन आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित किया। बिपिन दा ने स्टार पेपर मिल और साइमन एंड कंपनी के खिलाफ जिस तरह अभियान चलाया बाद में यही प्रखरता आपातकाल में उनकी गिरफ्तारी का कारण बनी।
पहाड़ में अभी संगठित रूप से आंदोलन शुरू ही हो रहे थे कि 26 जून 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। सरकार का विरोध करने वाले विपक्षी नेता, पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, रंगकर्मी जेल में डाले जाने लगे। बिपिन दा जैसे लोगों पर प्रशासन की पहले से ही नजर थी। उन्हें भी 6 जुलाई 1975 को द्वाराहाट बाजार से गिरफ्तार कर लिया गया। आपातकाल में गिरफ्तारी बिपिन दा के जीवन में नया मोड़ ले आयी। उन्होंने 21 महीने जेल में रहकर देश के राजनीतिक चरित्र को बहुत नजदीक से देखा। उन्होंने जेल में रहकर भी अपनी बात को कहने के लिये लगातार प्रशासन को परेशान किया। यही वजह है कि उन्हें कभी बरेली कभी आगरा तो कभी फतेहपुर और बाद में अल्मोड़ा भेजा गया। उन्होंने जेल में रहकर राजनीति के छद्म को भी बहुत नजदीक से देखा। जब आपातकाल के बहाने नेता जेलों में यातनाओं के किस्से गढ़ रहे थे तब वह जेल के छ्दम को जनता को बता रहे थे।
आपातकाल में जहां विभिन्न दलों के कैदियों को नए राजनीतिक समीकरणों के लिये सिद्धान्तों से समझौते करने पड़ रहे थे वहीं विपिन दा इस चिंता थे कि आपातकाल के बाद ‘छ्दम राष्ट्रभक्त’ और निहित स्वार्थी राजनीतिक लोगों की साजिशों को कैसे रोका जाए। उनका शक सही था। सही निकला। यह वह दौर जब देश का राजनीतिक परिदृश्य उन्हें बार-बार राष्ट्रीय राजनीति में आने की दावत दे रहा था। आपातकाल के शेर चूहों की मानिंद राजनीतिक बिलों में घुस रहे थे। संसद को वेश्या कहने वाले लोग उस व्यवस्था में शामिल होकर सच्चे-झूठे किस्से गढ़ रहे थे। बिपिन दा जनता सरकार में उद्योग मंत्री जार्ज फर्नाडीज का जिक्र कर्इ बार करते थे। आपातकाल के समय जेल में बंद जार्ज फर्नाडीज के छोटे भार्इ लारेंस फर्नाडीज ने जब जेल में पानी-पानी पुकारा तो तो पुलिस ने कहा- ‘साले के मुंह में मूत दो।’ लेकिन डाइनामाइट कांड के क्रांतिकारी पर इसका कोई असर नहीं पड़ा, बल्कि वे सत्ता की उस दौड़ में शामिल हो गये थे जहां एक-एक कर जनपक्षीय मुद्दे हासिये में धकेले जा रहे थे। त्रिपाठी जी ने ऐसे समाजवादियों के साथ रहने की बजाए जनता के साथ खेड़े होने का मन बनाया।
20 अप्रैल 1977 को बिपिन दा की जेल से रिहाई हुवी साथी उनसे बार-बार पैरोल में छूटने की सलाह देते थे। उन्होंने कहा कि जनता के हित में पैरोल में आना नैतिक नहीं है। यह अलग बात है कि आज के राष्ट्रभक्तों की बड़ी जमात उस समय पैरोल पर बाहर आई। उन्होंने जेल की यातनाओं को जिस तरह राजनीतिक हथियार बनाया वह बाद में जनता पार्टी के रूप में चौगुटे में परिवर्तित हो गया। जहां समाजवादी भी थे और जनसंघी भी। वस्तुतः यह एक ऐसी जमात थी जो चली तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के नारे से लेकिन विघटित हुवी अपने सत्ता स्वार्थ के लिये। उन्होंने अपनी डायरी में एक वाकये का जिक्र किया है जो उनके पूरे जीवन को समझने के लिये महत्वपूर्ण है। आपातकाल में जिस समय त्रिपाठी जी को पुलिस ने जबरन कैदियों के ट्रक में धकेला उस समय जनता में ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं थी जो उन्हें साहस दे सकती थी। वे कहते थे कि कभी-कभी मुझे लगता था कि जिस जनता के लिये मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हूं वह उनके लिये आगे नहीं बढ़ रही है। लेकिन बाद में स्वयं को ग्लानि हुवी। जनता तत्कालीन परिस्थितियों में असहाय थी। जेल से छूटने के बाद जनता ने उन्हें जो सम्मान दिया वह उनके सार्वजनिक जीवन में संबल का काम करता रहा।
उन्होंने अपनी डायरी में जिक्र किया है कि जब वे अल्मोड़ा जेल से छूटकर रानीखेत आये तो यहां लोगों ने उनके द्वाराहाट जाने के लिये टैक्सी के लिये चंदा इकट्ठा किया। आंदोलनकारी होने का दंभ भी था और शुभचिन्तकों का भी ख्याल करना था। टैक्सी आ गयी। टैक्सी में बैठने के लिये जैसे ही तैयार हुये सड़क के किनारे जंबू-गन्द्रेणी बेचने वाले भोटिया भाई ने टोक दिया- ‘भुला अपनी औकात मत भूलना। जेल से छूटते ही तम इतने बड़े आंदोलनकारी नहीं हो गये कि अपने घर टैक्सी से जाओ। अभी तुमने किया ही क्या है!’ विपिन दा के लिये यह संदेश जीवन का मूल मंत्र बन गया। फिर वे रोडवेज की बस से ही द्वाराहाट गये। तब से लेकर जीवन के अंतिम दिनों तक बिपिन दा ने कभी बड़े होने के भ्रम को अपने पास फटकने नहीं दिया।
आपातकाल के बाद देश नई सरकार बन गयी। जनता पार्टी की। लोगों को लगता था कि आंदोलनों से निकले लोग जनाकांक्षाओं को को अपनी प्राथमिकता मानेंगे। लेकिन बहुत जल्दी लोगों का यह भ्रम टूट गया। पहाड़ में सत्तर के दशक के शुरुआती दौर के युवाओं की टीम अब और परिपक्व हो चुकी थी। वे यहां के सवालों को अपने नजरिये से देखने और उन्हे हल करने रास्ते तलाशने लगे थे। युवाओं ने 1978 में एक संगठन बनाया। जिसका नाम रखा- ‘उत्तराखंड जनसंघर्ष वाहिनी।’ यह संगठन अस्सी के दशक में उत्तराखंड के जल, जंगल, जमीन के सवालों का प्रतिनिधि संगठन बन गया। कई आंदोलन संघर्ष वाहिनी ने किये। छात्र और नौजवानों ने बहुत प्रखरता से इस मंच से अपनी बात रखनी शुरू कर दी। जेल से छूटने के बाद त्रिपाठी जी चुप बैठने वाले नहीं थे वे भी इसके साथ जुड़े। इस बीच फिर वन आंदोलन शुरू हो गया। कुमाऊं विश्वविद्यालय के छात्र इस आंदोलन में शामिल थे। वनों की नीलामी के खिलाफ नैनीताल में छात्रों ने भारी विरोध किया। नैनीताल क्लब में आग लगा दी गयी। कई छात्र नेता गिरफ्तार किये गये। बिपिन त्रिपाठी भी इस आंदोलन की अगुआर्इ में थे। वे भी गिरफ्तार कर लिये गये। इसी दौर में 1984 में दो बड़े आंदोलन हुये। एक था ताड़ीखेत के ब्रौंज फैक्टरी में श्रमिकों का आंदोलन और दूसरा ‘नशा नहीं रोजगार दो।’ इन दोनों में ही विपिन त्रिपाठी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। ब्रौंज फैक्टरी के आंदोलन में जहां विपिन दा प्रशासन और कंपनी प्रबंधकों से भिड़े वहीं ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन में उन्हें 40 दिन जेल में काटने पड़े। बाद में जमीनों के सवाल को लेकर कोटखर्रा और बिन्दुखत्ता में संघर्ष वाहिनी और आर्इपीएफ द्वारा चलाये आंदोलनों में भी उन्होंने शिरकत की। पंतनगर में छात्रों के आंदोलन और महतोष मोड़ कांड के आंदोलनों में भी वे शामिल होते रहे।
वर्ष 1979 में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डाॅ. डीडी पंत के नेतृत्व में उत्तराखंड क्रान्ति दल की स्थापना हुर्इ। बाद में बिपिन त्रिपाठी इसमे शामिल हो गये। उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया गया। वे लंबे समय तक पार्टी के थिंक टैंक के रूप में कार्य करते रहे। पार्टी बनने के बाद 1980 में पहली बार उक्रांद ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भाग लिया। रानीखेत सीट से समाजवादी नेता जसवन्त सिंह बिष्ट उत्तर पद्रेश की विधानसभा के लिये चुने गये। यह उक्रांद के लिये संगठनात्मक और राज्य के सवाल को आगे लग जाने का जनमत था। बिपिन त्रिपाठी पार्टी की रीति-नीति से लेकर उसके संगठनात्मक स्वरूप को बनाने में लग गये। इस बीच पार्टी ने अपना आधार भी बढ़ाना शुरू किया। पार्टी के लिये संविधान बनाने से लेकर राज्य की परिकल्पना को लेकर भी उन्होंने बड़ा काम किया।
उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना पर उन्होंने एक बहुत तार्किक और तथ्यात्मक पुस्तिका निकाली जिसने न केवल उक्रांद के राजनीतिक एजेंडे के रूप में काम किया, बल्कि आम लोगों को भी राज्य की जरूरत को समझाने में सफल हुआ। वे लगातार पार्टी को बनाने जुट गये। पार्टी ने अपने कार्यक्रम देने शुरू किये। 1985 से लेकर 1989 तक पार्टी ने संगठनात्मक और कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी जगह बना ली थी। नवंबर 1987 में दिल्ली के बोट क्लब पर रैली, कुमाऊं और गढ़वाल कमिश्नरियों का घेराव, बंद-धरना प्रदर्शनों के माध्यम से भी उत्तराखंड राज्य का सवाल मजबूत होने लगा। इस पूरी कवायद में बिपिन त्रिपाठी की सोच काम कर रही थी। वन अधिनियम 1980 के खिलाफ जब पार्टी ने 1989 में व्यापक आंदोलन छेड़ा तो बिपिन दा उसके नेतृत्व में थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इन तमाम आंदोलनों को जनता ने भी समर्थन दिया। 1989 के चुनाव में पार्टी के दो विधायक आये वहीं लोकसभा की दो सीटों अल्मोड़ा और टिहरी पर पार्टी के उम्मीदवार बहुत कम अंतर से हारे। यह अलग बात है उक्रांद इस पूरे राजनीतिक माहौल को बाद में अपने पक्ष में नहीं कर पाया।
इसी बीच राज्य के भावी स्वरूप को लेकर पार्टी ने एक घोषणा पत्र तैयार किया। यह घोषणा पत्र उत्तराखंड राज्य का ‘ब्लू प्रिंट’ था। इसे 14 जनवरी 1992 में बागेश्वर में जारी किया गया। इस घोषणा पत्र में गैरसैंण को राजधानी बनाने के अलावा कर्इ महत्वपूर्ण मुद्दों को शामिल किया गया है। इसे बनाने में त्रिपाठी जी भी शामिल रहे। पार्टी की सोच थी कि 24 जुलार्इ 1992 को गैरसैंण में एक विशाल सम्मेलन कर गैरसैंण का नामकरण वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम पर ‘चन्द्रनगर’ किया गया। यहां राजधानी का शिलान्यास भी कर दिया। चन्द्रसिंह गढ़वाली की सौवी जयंती पर 25 दिसंबर 1992 को चन्द्रसिंह गढ़वाली की आदमकद मूर्ति का अनावरण भी कर दिया गया। इस पूरे आयोजन के शिल्पी बिपिन दा थे। सही अर्थो में राजधानी गैरसैंण की कल्पना और उसे जन-जन तक पहुंचाने का काम बिपिन दा की दूरदर्शी सोच का परिणाम है। त्रिपाठी जी का पूरा जीवन फिर उत्तराखंड राज्य संघर्ष में लग गया। 1994 में राज्य के निर्णायक आंदोलन में उक्रांद और संयुक्त संघर्ष समिति मे उनकी नेतृत्वकारी भूमिका रही।
बिपिन दा संवैधानिक पदों पर तो बहुत बाद में आये इससे पहले ही वे अपने क्षेत्र के कई विकास कार्यों को अपने बल पर करा चुके थे। उनका शिक्षा और सामाजिक चेतना के प्रति हमेशा प्रगतिशील समझ रही। द्वाराहाट क्षेत्र को शिक्षा और विकास के रूप में नई पहचान दिलाने में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा। द्वाराहाट में पाॅलीटैक्नीक, डिग्री काॅलेज, इंजीनियरिंग काॅलेज बनाने के लिये उन्होंने कई बार अनशन किया। जेल गये। आज द्वाराहाट शिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्रों में से एक है। ये सब काम वे पदों में आने से पहले कर चुके थे। वे पहली बार 1989 में द्वाराहाट विकासखंड़ के प्रमुख बने। देश में पहली बार ग्रामीण विकास के लिये बड़े बजट का प्रावाान किया जा रहा था। केन्द्र सरकार ने ‘जवाहर योजना’ शुरू की थी। इस योजना से जहां गांवों में विकास के लिये पैसा आ रहा था वहीं सरकार के नुमाइंदे और जनप्रतिनिधि इसे ठिकाने लगाने के रास्ते तलाशने लगे थे। तब लोगों ने तंग आकर इसका नाम ‘जहर योजना’ रख दिया था।
बिपिन दा ने ऐसे समय में ग्रामीण विकास का नया दर्शन दिया। उन्होंने काश्तकारों को इस बात के लिये प्रेरित किया कि अपने संसाधनों का सही इस्तेमाल करना सीखें। द्वाराहाट विकासखंड में उन्होंने उन्होंने अपने कार्यकाल में बहुत ही पारदर्शिता और र्इमानदारी से विकास के बजट का इस्तेमाल किया। उनके समय में द्वाराहाट में लोगों ने डेरी उद्योग, फलोत्पादन और सब्जी उत्पादन जैसे क्षेत्रों को अपनाया। हालांकि त्रिपाठी जी का एक विधायक के रूप में कार्यकाल मात्र दो-ढाई साल का रहा, लेकिन उन्होंने विधानसभा में अपनी बौद्धिकता से पहाड़ की नीतियों पर बहुत तथ्यात्मक, व्यावहारिक और दूरदर्शी नीतियों की बात रखी। अपने क्षेत्र के विकास के साथ वे पूरे राज्य के लिये जनपक्षीय नीतियों के लिये अंतिम समय तक लड़ते रहे। राजधानी, परिसीमन, परिसंपत्तियों, विकल्पधारियों के सवाल को जितनी प्रखरता से उन्होंने विधानसभा और उससे बाहर उठाया वह उनकी राजनीतिक इच्छाशक्ति को भी दर्शाता था। उत्तराखंड क्रान्ति दल के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पार्टी को सैद्धान्तिक और संठनात्मक दोनों तरह से मजबूत बनाने का काम किया।
बिपिन दा को याद करने का मतलब इतिहास के एक समय को याद करना है। आंदोलनों के एक दौर के प्रतिनिधि रहे बिपिन दा। त्रिपाठी जी और आंदोलन एक दूसरे के पर्याय थे। एक जीवट व्यक्तित्व के रूप में तो हम विपिन दा को याद करना प्ररेणाप्रद हो सकता है। सिद्धान्तों के प्रति जिद्दी बिपिन दा से आप खीज भी सकते हैं। उनसे असहमत लोगों की एक बड़ी जमात है। ऐसे असहमत लोगों में उनके विपक्षी तो थे ही उनकी धारा के लोग भी थे। बिपिन दा के साथ उनके साथियों की भिडंत हर बार नये संदर्भों में हो जाती। अपनी सही बात को मनवाने की जिद वे हद से बाहर तक कर सकते थे। जो उनकी समझ में नहीं आता उसे स्वीकार नहीं करते। इसका बहुत नुकसान उन्हें अपने राजनीतिक जीवन में उठाना पड़ा।
राजनीति में सुचिता और ईमानदारी को जिस तरह उन्होंने गांठ बांध लिया उसका फल भी उन्हें चुनाव में भुगतना पड़ा। वे हर चुनाव में भागीदारी करने की बीमारी से भी त्रस्त रहे। शायद ही कोर्इ चुनाव था जो उन्होंने छोड़ा। इसे वह अपनी बात कहने का मंच मानते थे। वे चुनाव तो राज्य बनने के बाद जीते उससे पहले सभी चुनाव हारे। लेकिन जब वे चुनाव प्रचार में जाते तो उन्हें सुनने के लिये हर पार्टी, हर तबके के लोग आते। चाहे वे उनसे सहमत हों या असहमत। लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति को उन्होंने बहुत कस कर पकड़े रखा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की उनकी बात मानी ही जाये। गांधी के इस विचार को वे जीवन भर आत्मसात करते रहे कि- ‘साध्य को प्राप्त करने के लिये साधनों की पवित्रता आवश्यक है।’ इस पर वे जीवन भर चले। राज्य बनने के बाद पहली विधानसभा के लिये वे द्वाराहाट विधानसभा क्षेत्र से चुने गये। अभी उनके कार्यकाल का ढाई साल भी पूरा नहीं हुआ था 30 अगस्त 2004 को हृदयगति रुक जाने से उनका देहावसान हो गया। बिपिन दा को विनम्र श्रद्धांजलि।
साभार- चारु तिवारी