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काश, सियारों ने कभी कछुओं से पूछा होता…जरूर पढ़ें

सावन के महीने में सियार पैदा हुआ, भादों के महीने बारिश देख चिल्लाया ….बाप रे बाप ,ऐसी बारिश जिन्दगी में पहली बार देखी

पिछले कुछ वर्षों से देश में ऐसी ही कुछ हो रहा है …इधर से भी और उधर से भी।

बात हाल की ही घटनाओं के जिक्र से शुरू करता हूँ I कुछ दिन पहले उक्रेन में युद्ध शुरू हुआ, कई भारतीय वहां युद्धग्रस्त क्षेत्र में फंसे हैं ..कुछ को सुरक्षित वापिस ले आया गया है, शेष को लाया जा रहा है… कल दुर्भाग्य से एक भारतीय की मृत्यु भी हो गयी।

यह पहली बार नहीं हुआ है …और सिर्फ भारत के साथ हुआ है ..इससे पहले भी अनेकों बार कहीं न कहीं युद्ध हुए हैं और युद्धग्रस्त क्षेत्र में युद्धरत देशों के अलावा ऐसे अनेकों देशों के नागरिक फंसे हैं ( जिन्हें न्यूट्रल सिटिजन कहा जाता है ) I हर बार ही हर देश ने युद्धग्रस्त क्षेत्र से अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालने के लिए आवश्यक कदम उठाये हैं ..और हर बार ही कहीं न कहीं किसी न किसी देश के कुछ नागरिक दुर्भाग्यवश मारे गए हैं I

लेकिन अभी मुख्यधारा के मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक …दो तरह के उन्माद फैलाए जा रहे हैं। इस तरफ के उन्मादियों का कहना है कि पहली बार नागरिकों को सुरक्षित लाने का काम किया गया है, जो कि अतुलनीय है, सराहनीय है ….तो उस तरफ के उन्मादियों का कहना है कि देखो ..देखो …हमारा एक नागरिक मारा गया …कोई कुछ नहीं कर रहा …यह निंदनीय है।

यह मैंने सिर्फ एक उदाहरण दिया है , अगर पिछले कुछ वर्षों की घटनाओं ( अच्छी और बुरी, दोनों ही ) को देखें तो पायेंगे कि इस तरह के अतिवादियों ( जिनके अनुसार ऐसा पहली बार हुआ है ) की संख्या खतरनाक तरीके से बढ़ रही है I अब घटना की विवेचना तर्कों, तथ्यों और परिस्थितियों जन्य कारणों के आधार पर नहीं होती, बल्कि किसी राजनैतिक दल विशेष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के आधार पर होती है।

चिंता की बात यह है कि दोनों ही पक्ष जानते हैं कि ऐसा पहले भी कई बार हो चुका है, आगे भी सम्भावना रहेगी ही, किन्तु दोनों ही जिद पर अड़े रहते हैं …

इसका एक बड़ा कारण यह है, कि अब परिवार बिखर रहे हैं, सामाजिक –परस्परता सिमटती जा रही है, तो जो चीज हम घर-परिवार, आस-पड़ौस, बड़े बुजुर्गों से सुन-सीख-समझ सकते थे, वह नहीं हो रहा है। तो जितना मुझे पता है ( या जितना मुझे पता करवाया गया है ), वही अंतिम सत्य है, का माहौल बन गया है I

दूसरा बड़ा कारण, जो मैं समझता हूँ, वह यह है कि शहरों-मोहल्लों से पुस्तकालयों का गायब होना, पढने-तलाशने की संस्कृति का लोप होना। अब व्हाट्सएप और सोशल मीडिया पर हर विषय का रेडीमेड ज्ञान उपलब्ध है। तो खोजने-जांचने की मेहनत कौन करे ? रेडीमेड फास्ट फ़ूड के जमाने में धीमी आंच में पकने वाली खीर के इन्तजार में समय कौन नष्ट करे ? आप किसी विषय पर सोशल मीडिया में लम्बा आलेख लिख कर देखिये, बहुत से लोग कहेंगे ,यार इतना लम्बा क्यों लिखते हो, पढने में समय लगता है। अब इतिहास, वर्तमान और भविष्य इतना छोटा भी तो नहीं कि चार लाइनों में समेट दिया जाय ?

काश ,सियारों ने कभी कछुओं से पूछा होता ..तो वे बताते कि बेटा अभी तेरी उम्र कम है , और आगे भी ज्यादा लम्बी नहीं है …

साभार
मुकेश प्रसाद बहुगुणा

लेखक के बारे में-
(लेखक राजकीय इंटर कॉलेज मुंडनेश्वर, पौड़ी गढ़वाल में राजनीति विज्ञान के शिक्षक है और वायु सेना से रिटायर्ड है। मुकेश प्रसाद बहुगुणा समसामयिक विषयों पर सोशल मीडिया में व्यंग व टिप्पणियां लिखते रहते है।)

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