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‘खतड़ुआ’ शीत ऋतु के आगमन के प्रतीक व पशुपालकों का पर्व

उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मण्डल में हर वर्ष अश्विन महीने की संक्रान्ति को ‘खतड़ुआ’ पर्व मनाया जाता है। परम्परागत तौर पर मनाए जाने वाले इस पर्व के दिन पशुपालक अपने पशुओं को भरपेट चारा-घास देते हैं और उनकी विशेष तौर पर देखभाल की जाती है। पर्व से ए्क दिन पहले भादो महीने के अंतिम दिन मसान्त को गॉवों में हर परिवार अपने पशुओं के लिए अगले दिन के चारे की व्यवस्था कर लेते हैं। इस दिन के लिए उस घास-चारे की विशेष व्यवस्था की जाती है, जो पशुओं को विशेष प्रिय होती है। खतड़ुआ के दिन बैलों को हल में भी नहीं जोता जाता है।

अश्विन संक्रान्ति के दिन शाम के समय सूखे हुए घास व पराल से एक पुलता बनाया जाता है। यह पुलता गॉव के सार्वजनिक रास्ते या चारागाह में बनाया जाता है। भाबर व तराई में घर के पास ही खेत में खतड़ुआ का पुतला बनाया जाता है। इसके बाद घर की बुजुर्ग महिला घास की एक मूठ को जलाकर उसे गोठ में ले जाकर पूरे गोठ में घुमाती जाती हैं, लेकिन यह सावधानी बरती जाती है कि किसी तरह से गोठ में रखे घास को आग न लगे। उसके बाद उसे बाहर लाया जाता है और घर के पास मौजूद सब्जी की क्यारी में लगे ककड़ी, कद्दू, तुरई आदि सभी प्रकार की बेल वाली सब्जियों को भी एक तरह की उस मशाल को छुआया जाता है।

यह कार्य अधिकतर हर घर की बुजुर्ग महिला करती हैं। इस दौरान वह ‘निकल भुइया, निकल भुइया, गै की हार, खतड़ की जीत’ कहती हुई जाती हैं। और साथ ही यह कामना करती हैं कि घर के किसी पशु को कोई बीमारी न हो, सभी स्वस्थ व ह्रष्ट-पुष्ट रहें, घर में दूध, दही व घी की कमी न हो, साल भर भरपूर धीनाली हो, किसी भी मेहमान को सूखी रोटी न खिलाने पड़े। बुजुर्ग महिला खरीब की फसल के भी खूब होने की कामना करती हैं, क्योंकि इसके बाद ही गॉवों में धान, मडु़आ और दूसरी फसलों की कटाई शुरु होने लगती है।

‘निकल भुइया, निकल भुइया’ कहते हुए घर की बुजुर्ग महिला एक तरह से पूरे परिवार व गोठ से हर तरह की विपदा से मुक्ति मिलने की कामना अपने परिवार के लिए करती हैं। आग की उस मूठ से बाद में घास के पुतले को जलाया जाता है कई जगह पुतले के जल जाने पर उसकी राख (अवशेष) को सबके माथे पर भी लगाया जाता है। उसके बाद पुलते की राख को घर के पास के किसी गघेरे में फैंकते हुए ‘गै की जीत, खतड़ की हार, गै पड़ि श्यैल, खतड़ पड़ि भ्योल’ (अर्थात् गाय की जीत हो गयी और खतड़ रूपी सभी बीमारियॉ भाग गई) कहा जाता है। जब घास के पुलते को आग के हवाले किया जाता है तो पूरा परिवार उसके चारों ओर खड़ा हो जाता है। पुतले के जल जाने पर बुजुर्ग महिला ककड़ी काटकर सभी को देती है, जिसे मिर्च के साथ पिसा हुआ तीखा नमक लगाया खाया जाता है।

इस त्योहार को वर्षा ऋतु की विदाई और शीत ऋतु के आगमन का सूचक भी माना जाता है। अश्विन संक्रान्ति के बाद मौसम में हल्की ठंड बढ़ने लगती है। शीत ऋतु की तैयारी के लिए वर्षा के मौसम के कारण सीलन पकड़ चुके गर्म कपड़ों को भी धूप दिखाने की प्रक्रिया शुरु हो जाती है, ताकि वे सीलन के कारण खराब न हों और जाड़ों में शरीर को भरपूर गर्मी दें।

खतड़ुआ के जलते समय उसके चारों ओर खड़े होने को एक तरह से शीत ऋतु के आगमन का सूचक और उसका स्वागत करने के तौर पर देखा जाता है। वैसे भी गर्मी व बरसात के मौसम में कीट-पतंगों व कई तरह की बीमारियों का हमला कुछ ज्यादा ही होता है, इस कारण से शीत को गर्मी व बरसात की अपेक्षा ज्यादा अच्छा माना जाता है। इस मौसम में गर्मा-गर्म खाने का अपना अलग ही आनन्द होता है।

कुछ भाषाविद् खतड़ुआ को खतड़ शब्द का अपभ्रंश भी मानते हैं, क्योंकि कुमाउनी में खतड़ या खातड़ पहने जाने वाले कपड़ों को कहते हैं। ‘खतड़ की जीत’ शब्द को भी ठंड के आगमन के तौर पर ही माना जाता है, क्योंकि ठंड में हर तरह के कपड़ों की आवश्यकता अधिक पड़ती है। शरीर में भी अधिक कपड़े पहने जाते हैं। एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि ठंड के दिनों हमारे पूरे शरीर व घर में कपड़ों का साम्राज्य होता है। बिना कपड़ों के हम नहीं रह सकते, चाहे दिन हो या रात। इसकी अपेक्षा गर्मी व बरसात में कम कपड़ों से ही काम चल जाता है। इसी वजह से खतड़ुआ को गर्म कपड़ों के आगमन के प्रतीक के तौर पर भी लिया जाता है। कुछ स्थानों में इसे ‘घास त्यारों’ भी कहा जाता है।

साभार- जगमोहन रौतेला

 

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