सन अस्सी का दशक अभी शुरू ही हो रहा था। गाँव, गलियां, मोहल्ले, कस्बे, नुक्कड़, चौपाल जीवंत थे। पार्क , बगीचों, खाली मैदान बच्चों की धमाचौकड़ी से खिलखिलाते रहते थे। गाँव के चौपाल ठहाकों से गूंजते थे, पेड़ों पर लड़कियां झूलती थीं, नुक्कड़ पर पान की दुकान-चाय के खोखे चहलपहल से भरे रहते थे। शहर की किसी भी गली में चले जाइए, बाहर चारपाई डाल दस-बीस लोग बतियाते नजर आते थे। आसमान पर रंग बिरंगी पतंगे नृत्य करती थी। कस्बों-शहरों की लाइब्रेरी में लोग पढ़ते दिखाई देते थे। घर, दुकान, खेत, खलिहान में रेडियो बजता रहता था।
जब तक रात की नींद न आ जाए, देश-समाज जागता रहता था, जिन्दा, सजीव, साकार, साक्षात।
तभी टीवी आ गया। अब लोग घरों में सिमटने लग गए। रविवार की शाम की फिल्म और बुधवार को चित्रहार के समय तो ऐसा लगता था, कि पृथ्वी की गति ही रुक गयी है। ऐसे समय कोई मेहमान-दोस्त घर आ जाये, तो ख़ुशी की बजाय एक अजीब सा तनाव छा जाता था, मेजबानों के चेहरे पर। नया टीवी तो पिछले महीने ही दिखा दिया इनको, अब ठीक चित्रहार के समय पहुँच जाते हैं। चाय पिलाने की रस्म भी निभानी ही है, पर घर में टीवी छोड़ चाय कौन बनाए ?
धीरे-धीरे किसी को पता भी चला और नुक्कड़, मोहल्ले, चाय के खोखे, पान की दुकान, बाग़-बगीचे, मैदान, चौपाल बदरंग-बेजान से होने लगे। अब लोग पास पड़ोस की बजाय अमेरिका-रूस-दिल्ली को ज्यादा जानने लगे। जिन झगड़ों-विवादों से कोई सम्बन्ध न था, वो अपने सम्बन्धियों के प्रेम से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए। जिन बातों का छोटे बच्चों से कोई सरोकार नहीं, वे बातें बच्चों में चर्चा का विषय हो गयी। बच्चे अचानक ही अपनी उम्र से बड़े-बूढ़े होने लगे। बड़े-बूढ़े बचकानी हरकतें करने लगे। सदियों से चले आ रहे सामाजिक-ताने बाने शिथिल होने लगे, जोड़ खुलने लगे। कहीं कोई जेल नहीं, पर लोग घरों में कैद हो गए।
फिर आया इन्टरनेट, स्मार्ट फोन। अब कैदी बड़े हाल की बजाय तन्हाई की कोठरियों में जाने लगे। ऐसी कोठरी, जहाँ सब कुछ आता है, सिवा ताजा हवा के। समाज तो बिखर चुका था, अब परिवार भी बिखरने लगा। पहले अफवाह फैलाने घर से बाहर निकलते थे, अब घर बैठे अफवाहें फैलने लगी। समाज-घर-परिवार के पैरों में बंधन लगे, अफवाहों के पंख निकल आये। मेले-तमाशे खत्म, लाइब्रेरी पर ताले, चौपाल में सन्नाटा, नुक्कड़ पर ख़ामोशी, मैदान उजाड़, पेड़ों की डालियों सूनी, बगीचों में चिड़िया बच्चों की आवाज सुनने के लिए तरसती। बाप बेटे के बीच अजीब सी गंभीरता, माँ-बेटी के बीच ख़ामोशी, भाई-बहन के बीच बातें नहीं, सास-बहू ,देवरानी-जेठानी, ननद-भाभी के रिश्तों में अजीब सी ठण्ड।
पहले व्यक्ति था, समाज था, राज्य था। अब व्यक्ति है, राज्य है, लेकिन व्यक्ति से राज्य के बीच के सारे पुल जर्जर हो गए हैं। संवाद के रास्ते संकरे होते जा रहे हैं। रिश्ते-नाते-संबंध बोझिल रस्म बन रहे हैं।
शायद आदिमानव भी ऐसा ही रहा होगा कभी। हम आधुनिक सुविधा संपन्न आदिमानव बनते जा रहे हैं।
साभार
मुकेश प्रसाद बहुगुणा ‘सागर’