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यूरोप का उग्र राष्ट्रवाद.. नस्ल-भाषा-संस्कृति-धर्म का सतत संघर्ष और विखंडन

रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के बाद बहुत संभव है कि नक़्शे पर दो नए देश और दिखाई दें। नस्ल–भाषा–संस्कृति–धर्म के आधार टिके उग्र राष्ट्रवाद के नाम यूरोपीय देशों का विखंडन कोई नयी बात नहीं है (राष्ट्रवाद शब्द ही यूरोपीय राजनैतिक दर्शन की देन है)। विखंडन की यह प्रक्रिया बहुत पुरानी है। आइये जानते हैं पिछले सात-आठ दशकों में यूरोप की स्थिति।

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यूरोप में पच्चीस देश थे। युद्ध के बाद न सिर्फ जर्मनी का विभाजन हुआ, बल्कि ईसाई मान्यताओं पर आधारित राष्ट्रवाद के कारण यूरोप से भगाए गए यहूदियों के लिए एक अलग देश (इजराइल) की नींव भी पड़ी। सोवियत संघ के विभाजन के पीछे उसमें शामिल छोटे देशों की राष्ट्रीयता और पहचान भी एक बड़ा कारण थी।

सन ९० के पूर्वार्ध में सोवियत संघ के विखंडन के कारण न सिर्फ नए पूर्वी यूरोपीय देशों का जन्म हुआ, बल्कि पूर्वी यूरोप के अन्य देशों में (यूस्लोवाकिया .चेकोस्लोवाकिया आदि) भी क्षेत्रीयता की भावनाएं तीव्र हुई और ये देश बिखर गए, नए देशों का जन्म हुआ।

सन 2010 तक , यूरोपीय देशों की संख्या (द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 25) बढ़कर 48 हो गयी। इसके कुछ समय बाद ब्रिटेन विभाजित होने से बाल बाल बच गया (पृथक होने के जनमत संग्रह में एक प्रतिशत से भी कम वोट के अंतर से आयरलैंड पृथक देश न बन सका, आज भी ब्रिटेन में आयरलैंड और स्काटलैंड की पृथक स्वायत्त सरकारें हैं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इन दोनों की टीमें अलग अलग भी खेलती हैं)।

चार–पांच वर्ष पूर्व जब रूस ने क्रीमिया पर कब्ज़ा कर उसे पृथक देश की मान्यता दी थी (भारत ने भी क्रीमिया को मान्यता दे रखी है), तो देशों की संख्या बढ़ कर 49 हो गयी। अब अगर यूक्रेन का विभाजन (Donetsk और luhansk) हुआ तो देशों की संख्या का अर्द्धशतक बन जायेगा।
ये संकट सिर्फ यूरोप का ही नहीं है , मध्य एशिया भी सदियों से इसी संकट से जूझ रहा है। इरान, ईराक, तुर्की के कुछ क्षेत्र (कुर्द बहुल) बरसों से अलग देश अलग पहचान के लिए लड़ते आ रहे हैं।

दक्षिण और पूर्वी एशिया में नस्ल-भाषा-संस्कृति-धर्म के आधार पर उग्र राष्ट्रवाद भी यूरोप की ही देन है। ब्रिटेन, फ्रांस आदि देशों ने अपने औपनिवेशिक राज के दौरान यह बीज बोया (आज भारत– पाकिस्तान–बांग्लादेश–अफगानिस्तान, इसी विभाजनकारी विचार की ही देन हैं)। उग्र राष्ट्रवाद हमेशा ही बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच में युद्ध की स्थिति उत्पन्न कराता है। वह सहमति के अनेकों बिन्दुओं की बजाय असहमति के चंद बिन्दुओं पर राजनीति करने में विश्वास रखता है।

(यह लेखक के अपने विचार है)

साभार
मुकेश प्रसाद बहुगुणा

लेखक के बारे में-
(लेखक राजकीय इंटर कॉलेज मुंडनेश्वर, पौड़ी गढ़वाल में राजनीति विज्ञान के शिक्षक है और वायु सेना से रिटायर्ड है। मुकेश प्रसाद बहुगुणा समसामयिक विषयों पर सोशल मीडिया में व्यंग व टिप्पणियां लिखते रहते है।)

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